सुख-दुख मनुष्य की कल्पना ! (बोध कथा)


नेरंजरा नदी के तट पर प्रसन्नमुख आसीन भगवान बुद्ध को देखने गई सुजाता बडी विस्मित हो रही थी कि यह सात दिन तक एक ही आसन पर कैसे बैठे रहे ? तभी सामने से एक शव लिए जाते हए कुछ व्यकि दिखाई दिए। उस शव को देखते ही भगवान बुद्ध हँसने लगे।
सुजाता ने प्रश्न किया- योगिराज! कल तक तो आप शव को देखकर दुखी हो जाते थे, आज वह दुख कहाँ चला गया?
भगवान बुद्ध ने कहा-बालिके! सुख-दुख मनुष्य की कल्पना मात्र है। कल तक जड़ वस्तओं में आसक्ति होने के कारण यह भय था कि कहीं यह न छूट जाए, वह न बिछुड़ जाए। यह भय ही दुख का कारण था, आज मैंने जान लिया कि जो जड़ है, उसका तो गुण ही परिवर्तनशील है, पर जिसके लिए दुख करते हैं, वह तो न परिवर्तनशील है, न नाशवान। अब तू ही बता-जो सनातन वस्तु पा ले, उसे नाशवान वस्तुओं का क्या दुख?


आत्मावलंबन की उपेक्षा व्यक्ति को कहाँ-से-कहाँ पहुँचा देती है? इसके कई उदाहरण देखने में मिलते हैं। सद्गति का लक्ष्य समीप होते हुए भी वे अपने इस परम पुरुषार्थ की अवहेलना कर पतन के गर्त में भी जा पहुँचते हैं। अहंकार की उत्पत्ति व उसका उद्धत प्रदर्शन इसी आत्मतत्व की उपेक्षा की फलश्रुति हैं।


-अखण्ड ज्योति से साभार