किसी की प्रशंसा चापलूसी है या उत्साह वर्धन का प्रयास, इसमें अंतर करना देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है। आपसी वार्तालाप के दौरान प्रशंसा में कही गई सभी बातें न तो चापलूसी हैं और न ही किसी को उत्साहित करने का प्रयास ही हैं। इसे समझने में सतर्क बुद्धि की जरूरत होती है। जब कोई व्यक्ति किसी से अपना मतलब साधने के लिए प्रशंसा के पुल बांधता है तो वह चापलूसी ही है, जबकि किसी के उत्साहवर्धन के लिए अच्छे शब्दों -वाक्यों का प्रयोग करता है और उस व्यक्ति का उद्देश्य निस्वार्थ होता है तथा छल करने की कोशिश नहीं होती तो वह एक तरह से यज्ञ-अनुष्ठान ही होता है। किसी को अच्छे शब्द वाक्य बोलकर उसमें ऊर्जा का संचार करना महान कार्य है। शब्द ब्रह्म होते हैं। शब्दों का गलत प्रयोग भी कहने-सुनने वाले दोनों के लिए घातक होता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि किसी की प्रशंसा चापलूसी के तहत की जा रही है तो सुनने वाले की आदतें बिगड़ती है और वह हर किसी से तारीफ ही सुनने का आदी हो जाता है। कोई झूठी तारीफ नहीं करता तो उसका चित्त बिगड़ जाता है। कोई बिना तारीफ के पुल बांधे बिना अपनी बाते कहता है तो सुनने वाले को अच्छा नहीं लगता। स्वार्थवश बहुत से लोग गलत प्रवृत्ति के व्यक्ति की भी झूठी तारीफ करते रहते हैं। प्रायः उन्हीं लोगों की झूठी तारीफ लोग करते हैं जो पद-प्रतिष्ठा और पैसे से मजबूत होते हैं। इस तरह के प्रभुत्वशाली लोगों के गलत आचरण पर भी वाहवाही होने लगती है। ऐसे लोग फिर गलत रास्ते पर ही चलने लगते हैं।
धर्मग्रंथों में स्वार्थ की पूर्ति के लिए गलत तथा संस्कारहीन लोगों की प्रशंसा में कुछ बोलने-लिखने को निंदनीय बताया गया है। स्वार्थवश झूठी तारीफ सुनने और सुनाने वाले को इसके दुष्परिणाम मिलते हैं। इसका उदाहरण वनवास के दौरान सीताहरण की कथा से मिलता है। जाते समय लक्ष्मण ने एक रेखा खींची तथा सीताजी से उसे न लांघने की बात कही। यह रेखा शब्दों की रेखा थी। लक्ष्मण के इस कदम से निहितार्थ निकलता है कि कोई भी आए और तारीफ के कितने भी पुल बांधे, लेकिन उसकी बातों पर अपना बुद्धि विवेक खोना नहीं चाहिए।
सीता जी रावण की बातों में आ गई और संकट में पड़ गई। वहीं झूठी तारीफ कर किसी को छलने का भी दंड धर्मग्रंथों में है।