"बलि" पशु की नहीं, करूणा की हत्या !

एथेंस के देव मन्दिर में कोई उत्सव था। उसमें शामिल होने के लिए प्लेटों को भी लोगों ने बुलाया, जिससे वह इंकार न कर सके। वह भी उत्सव में सम्मिलित हुए। लेकिन मन्दिर में उन्हें एक अलग ही दृश्य देखने को मिला। असल में, मन्दिर में जो भी आता, एक पशु अपने साथ लाता, और फिर देव प्रतिमा के सामने उसकी बलि देता। वह पशु तड़पता हुआ अपने प्राण त्याग देता। दर्शक यह सब देखते, हंसते, इठलाते और नृत्य करते। प्लेटों से यह दृश्य देखा न गया। उन्होंने धर्म के नाम पर ऐसा उत्सव पहली बार देखा था। वह उठकर चलने लगे। उनका हृदय आर्तनाद कर रहा था। तभी एक सज्जन ने उनका हाथ पकड़कर कहा, आज तो आपको भी बलि चढ़ानी होगी। लीजिए यह रही तलवार और यह रहा बलि का पशु। प्लेटों ने शांतिपूर्वक थोड़ा पानी लिया, मिट्टी गीली की, और उसी मिट्टी से छोटा सा जानवर बनाया। फिर उस निर्जीव जानवर को देव प्रतिमा के सामने रखा, तलवार चलाकर उसे काट दिया, और फिर घर की ओर बढ़ने लगे। पर लोगों ने कटाक्ष भी किया, क्या यही आपका बलिदान है? हां, प्लेटों ने कहा, आपका देवता निर्जीव है, उसके लिए निर्जीव भेंट उपयुक्त थी, सो चढ़ा दी। उन धर्मधारियों ने प्रतिवाद किया, जिन लोगों ने यह प्रथा चलाई, क्या वे मूर्ख थे? क्या आपका अभिप्राय यह है कि हमारा यह कृत्य मूर्खतापूर्ण है? यह सुनकर प्लेटों मुस्कराए, पर उनका हृदय कराह रहा था। उन्होंने निर्भीक भाव से कहा, आप हों या पूर्वज, जिन्हांेने भी यह प्रथा चलाई, उन्होंने पशुओं की नहीं, बल्कि मानवीय करूणा की हत्या का प्रचलन किया है। कृपया न तो देवता को कलंकित करें, न धर्म को, क्योंकि धर्म दया और विवेक का पर्याय है, हिंसा और अंधविश्वास का पोषक नहीं।