क्रोध के समय बोध

एक देवरानी और जेठानी में किसी बात पर जोरदार बहस हुई और दोनों में बात इतनी बढ़ गई कि दोनों ने एक-दूसरे का मुंह तक न देखने की कसम खा ली और अपने-अपने कमरे में चली गई। परंतु थोड़ी देर बाद जेठानी के कमरे के दरवाजे पर खट खट हुई। जेठानी तनिक ऊंची आवाज में बोली, 'कौन है बाहर?' बाहर से आवाज आई, 'दीदी मैं।'
जेठानी ने जोर से दरवाजा खोला और बोली, 'अभी तो बड़ी कसमें खाकर गई थी। अब यहां क्यों आई हो?' देवरानी ने कहा, 'दीदी सोचकर तो वही गई थी, परंतु मां की कही एक बात याद आ गई कि जब कभी किसी से कुछ कहा-सुनी हो जाए, तो उसकी अच्छाइयों को याद करो और मैंने भी वही किया और मुझे आपका दिया हुआ प्यार ही प्यार याद आ गया। और मैं आपके लिए चाय लेकर आ गई।'
बस फिर क्या था, दोनों रोते-रोते एक-दूसरे के गले लग गई और साथ बैठकर चाय पीने लगीं। सच तो यह है कि जीवन में क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता, बोध से जीता जा सकता है।