मानवता के अप्रितम धर्म योद्धा गुरू गोविन्द सिंह


    गुणों के भण्डार गुरू गोविन्द सिंह, भारत के गौरव साकार गुरू गोविन्द सिंह, साहस के अवतार गुरू गोविन्द सिंह, थे दशमेशावतार गुरू गोविन्द सिंह। गुण, गौरव, और साहस श्री गुरू गोविन्द सिंह जी ने नाम तीनों शब्दों के प्रथम अक्षरों के प्रतीक शब्द हैं जिनको उनके जीवन में हम साकार देखते हैं। गुरू गोविन्द सिंह जी का जीवन बहुपक्षीय एवं बहुआयामी था। उनसे प्रेरित होकर मनुष्य ने सिर्फ जीवन के उच्चतम उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है, बल्कि जीवन की आम समस्याओं से निपटने के लिए भी मार्गदर्शन हासिल कर सकता है।
संत सिपाही-श्री गुरू गोविन्द सिंह जी संत भी थे सिपाही भी। उन्होंने हमेशा गरीब पीड़ितो की रक्षा और अत्याचार के विरोध के लिए तलवार उठाई।


औरंगजेेब के सिपहसलार सैद खां से युद्ध करते समय जब गुरू गोविन्द जी ने उस पर वार किया तो वह घायल होकर गिर पड़ा। गुरू जी ने अपनी ढाल से उस पर छाया की और मरहम पटटी का प्रबंध भी किया। कहा जाता है श्री गुरू गोविन्द सिंह के तीरों में सोना मढ़ा रहता था ताकि मरने वालोें को अंतिम संस्कार का सामान मिल सके। यदि वह घायल होता है तो उसके इलाज का खर्च मिल सकता है। गुरू गोविन्द सिंह का उच्च आचरण मनुष्य को सिखाता है कि परिस्थितियों कितनी भी विपरीत हो, मानवीय मूल्यों को कभी नहीं भूलना चाहिए। गुरू गोविन्द सिंह जी ने बैसाखी के दिन खालस पंथ की स्थापना की। एक शक्तिशाली सेना तैयार की। वे कहते थे ''चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं और सवा लाख से एक लड़ाऊं'' गुरू जी ने जनता की सोई शक्ति को जगा दिया जो अपने सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी ताकत से भिड़ने में समर्थ है। साथ ही साथ उनका संदेश था सभी मनुष्य समान है। 
अध्यात्मिक नेतृत्व-उन्होंने सिक्खों को अमृत छकाकर पंच ककार पहने का आदेश दिया। केेश, कच्छ, कृपाण, कंघा, कड़ा। कंघा-श्रेष्ठ चिंतन, कृपाण-शक्ति, कछ-सदाचार कड़ा संयम और कंघा स्वच्छता एवं निर्मलता का प्रतीक है। श्री गुरू गोविन्द सिंह केवल योद्धा हीं नहीं थे, बल्कि साहित्य प्रेमी भी थे। आपकी कविता के स्त्रोत में वीर और भक्ति रस का प्रबल प्रवाह था। उन्होंने "अकाल स्तुति'' चण्डी चरित्र, जापु साहिब, जफर नामा, चैपाई साहिब की रचना की। इनके दरबार में 52 कवियों समेत सर्वाधिक विद्वान थे, जो निरन्तर साहित्य सृजन में लगे रहते थे।
सर्ववश बलिदानी-गुरू जी के परदादा श्री गुरू अर्जुन देव जी ने शहीदी देकर बलिदान की परम्परा शुरू की। इनके पिता श्री गुरू तेग बहादुर जी का शीश चादनी चैर में दिया गया। गुरू जी के चार पुत्र साहिबजादे भी मानवता की रक्षा हेतु कुर्बान हुए। अंत में मैं कहना चाहती हूं श्री गुरू गोविन्द सिंह जी ने यह सिद्ध कर दिया सत्य और मानवता की रक्षा के लिए बलिदान करना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए।