मराठा सरदार राघोबा पेशवा पर अपने भतीजे की हत्या का अभियोग था। जिस न्यायालय में उसका निर्णय होने वाला था, उसके न्यायाधीश श्री रामशास्त्री थे। श्री शास्त्री सत्यनिष्ठा के लिए दूर-दूर तक विख्यात थे, इसलिए राघोबा को भय था, कहीं उसे सजा न मिल जाए।
राघोबा की धर्मपत्नी को एक उपाय सूझा। उन्होंने श्री रामशास्त्री को भोज दिया और इस विचार से उनकी खूब आवभगत की कि उससे प्रभावित होकर श्री शास्त्री उनके पक्ष में ही निर्णय देंगे। बात-बात में उन्होंने इस बात की चर्चा ही छेड़ दी तो न्यायनिष्ठ श्री रामशास्त्री ने कहा- न्याय की दृष्टि से तो सरदार को प्राणदंड मिलना ही चाहिए।
राघोबा की पत्नी उनकी इस निर्भयता से प्रभावित तो हुई, पर उन्होंने कहा-इस तरह का निर्णय देने का परिणाम जानते हैं आप क्या होगा? हम जिंदा ही आपकी जीभ कटवा लेंगे और किसी गड्ढे में गड़वा देंगे?
बिना उत्तेजित हुए श्री शास्त्री ने उत्तर दिया- यह आप कर सकती हैं, पर उससे मुझे कोई दुख नहीं होगा, गलत निर्णय देने की अपेक्षा तो जीभ क्या सिर काट लिया जाना ही अच्छा है। अंतत: विजय न्याय की ही हुई।