बुजुर्गों के लिए बनाया आश्रम स्थल !


मैं केरल के मलपल्ली का रहने वाला हूँ। नौकरी के सिलसिले में लम्बा वक्त मुझे केरल के बाहर गुजारना पड़ा। लेकिन जब भी मैं छुट्टियों में घर आता, तब अजीब पीड़ा से भर जाता। मैं देखता कि मेरे गांव के अनेक बुजुर्गां को देखने वाला कोई नहीं था, उनकी सेवा-सुश्रुषा की तो बात ही छोड़ दें। हर बार नौकरी पर जाते हुए मैं सोचता कि अपने गांव के बेसहारा बुजुर्गों के लिए कुछ करूंगा, लेकिन हमारे समाज में बुजुर्गों के अकेले रहने का चलन नहीं है, लोग प्रायः अपने वृद्ध माता-पिता के साथ ही रहते है। लेकिन मैं दुखी था कि नए जमाने का चलन हमारे यहां भी पैर पसार चुका था। अलबत्ता दो वर्षपहले अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ रहने के लिए हमेशा के लिए गांव लौटने पर मैंने अपने सपने को साकार करने की दिशा में कदम बढ़ाया। और अब मैं खुश हूँ कि मेरे गांव के बुजुर्गों को किसी की दया पर आश्रित नहीं रहना पडे़गा।
मैंने अपने गांव में ही आसपास बने चौबीस जर्जर मकानों को नीलामी में खरीदा, क्योंकि मुझे अधिक जगह की जरूरत थी। सारे मकानों को ढहाकर बड़ा भवन बनाना था, लेकिन मैंने ठेकेदार को साफ बता दिया था कि पुराने मकानों की चीजों को ही नए भवन में इस्तेमाल करना है, ताकि कोई चीज बेकार न हो। पुराने मकानों की लकड़ियाँ, लोहे और ईंट निकालकर अलग कर लिए गये। मैंने विशाल भवन के निर्माण में एक भी पेड़ न काटने का निश्चय किया था। मैंने ठान लिया था कि जब बुजुर्गों के लिए आश्रय स्थल बनाऊंगा तो पर्यावरण के साथ भी छेड़छाड़ नहीं करूंगा। दरअसल लम्बे समय तक बाहर रहकर मैंने पर्यावरण का महत्व समझ लिया था। शुरू में लोगों ने इसे मेरा पागलपन समझा। आसपास के लोगों ने मुझे समझाया भी कि पुराने सामान से मकान बनाऊंगा, तो वह टिकाऊ नहीं होगा। लेकिन चूंकि मैंने कई जगह पुरानी लकड़ियों और ईंटों से नया मकान बनाते देखा था, इसलिए मैंने उनकी सलाहों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। मकान बनाने में मैंने लाल मिट्टी, ईंट, पत्थर, लकड़ी, लोहा और टाइल्स का इस्तेमाल किया है। मैंने दक्षिण भारत के ही अनेक गांवों में इन वस्तुओं से मजबूत मकान बनते देखे हैं। गांव के एक दो लोगों ने मुझे सीमेंट का इस्तेमाल करने के लिए कहा। लेंकिन मैंने उन्हें बताया कि हमारे यहां भवन निर्माण में सीमेंन्ट का इस्तेमाल 1886 में शुरू हुआ। इससे पहले लोग ईंट, मिट्टी और लकड़ियों से ही मकान बनाते थे, जो वर्षों तक चलते थे। चूंकि इस्तेमाल किए सामान से ही भवन बनना था, सो निर्माण कार्य में ज्यादा समय नहीं लगा।
मैंने अपने इस भवन में बुजुर्गों के लिए कुल पन्द्रह कमरे बनाए हैं। इनमें वे सारी सुविधाएं हैं, जो बुजुर्ग के लिए जरूरी है। मसलन, हर कमरे में व्हील चेयर के आने जाने की व्यवस्था है। अब मेरे गांव के किसी बुजुर्गों को अकेला नहीं रहना पड़ेगा। गांव के लोगों ने मेरे काम की सराहना करते हुए जहां हरसंभव मद्द करने की बात कहीं हैं, वहीं आसपास के गांवों के लोग मेरे इस प्रयोग को देखने मेरे यहां आते हैं। उनमें से कइयों ने कहा है कि वे भी अपने गांव में बुजुर्गां के लिए ऐसे ही मकान बनायेंगे। मैं लोगों को एक ही बात कहता हूं कि हमें सिर्फ सरकार से ही अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि खुद भी ऐसे काम करने चाहिए जिसका समाज पर असर पड़े और लोग प्रेरित हों।
- बीजू अब्राहम