भगवद्भक्तों की कोई जाति नहीं होती (प्रेरक कथा)


नरसी मेहता गुजराती भक्ति साहित्य के श्रेष्ठतम कवि थे। काव्य रचनाकार के रूप में गुजराती साहित्य में नरसी का लगभग वही स्थान है, जो हिंदी में महाकवि सूरदास का है। वह श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। भक्त नरसी मेहता जूनागढ़ में गृहस्थ जीवन बिताते हुए भगवान की पूजा, उपासना तथा रोगियों की सेवा में लगे रहते थे। वह अपने रचे पदों को इतनी तन्मयता के साथ गाते थे कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहते थे। एक दिन एक भक्त ने उनसे पूछा, क्या आप मेरे घर पर पधारकर संकीर्तन कर उसे पवित्र कर सकते हैं? दरअसल वह निचली जाति से संबंध रखता था, इसलिए उसे आशंका थी कि कहीं वह मना न कर दें। लेकिन नरसी मेहता ने कहा, कीर्तन क्यों नहीं किया जा सकता? तुम संकीर्तन की तैयारी करो, मैं समय पर पहुंचकर तुम्हारे परिजनों के बीच कीर्तन करूंगा। नरसी मेहता उस भक्त के घर निश्चित समय पर पहुंच गए। उन्होंने उसी निश्टा और तनमयता के साथ कीर्तन-भजन गाया। प्रसाद ग्रहण किया। लेकिन उनकी जाति के कुछ रूढ़िवादी लोगों को जब पता चला, तो उन्होंने पंचायत कर नरसी मेहता को उस निचली जाति के भक्त के घर कीर्तन करने के आरोप में जाति से बहिष्कृत कर दिया। नरसी मेहता ने अपनी जाति के मुखिया से विनम्रतापूर्वक कहा, भगवद्भक्तों की कोई जाति नहीं होती। जो भी एक साथ संकीर्तन करते हैं, सभी एकाकार होकर एक ही जाति के भगवद्भक्त हो जाते हैं। आप लोगों ने मुझे केवल एक जाति के दायरे से बाहर निकालकर सचमुच मुझ पर बड़ा उपकार किया है। मैं आप सबका आभारी हूं। मुखिया सारंधर भक्त मेहता का मुंह देखता रह गया।