भारतीय संस्कृति विश्वव्यापी प्रथम संस्कृति है!


यजुर्वेद 7/14 में एक पद आता है-'सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा।' | अर्थात यह प्रथम संस्कृति है, जो विश्वव्यापी है।


सृष्टि के आरंभ में संभव है ऐसी छिटपुट संस्कृतियों का भी उदय हुआ हो जो वर्ग विशेष, काल विशेष या क्षेत्र विशेष के लिए उपयोगी रही हों। उन सबको पीछे छोड़कर यह भारतीय संस्कृति ही प्रथम बार इस रूप में प्रस्तुत हुई कि उसे विश्व संस्कृति कहा जा सके। हुआ भी यही कि जब उसका स्वरूप सर्वसाधारण को विदित हुआ तो उसकी सर्वश्रेष्ठता को सर्वत्र स्वीकार ही किया जाता रहा और उसे सर्वोच्च भी माना गया। फलस्वरूप यह विश्वव्यापी होती चली गई। इस स्थिति का उपरोक्त मंत्र भाग में संकेत है। इतिहास न भी माने तो भी उसे यह तो स्वीकार करना ही होगा कि विश्व संस्कृति माने जाने योग्य समस्त विशेषताएँ इस भारतीय संस्कृति में समग्र रूप से विद्यमान हैं।


'विश्ववारा' शब्द का अर्थ होता है-'जो समस्त संसार द्वारा वरण की जा सके, स्वीकार की जा सके।' दूसरे शब्दों में इसे सार्वभौम भी कह सकते हैं। संस्कृति के लिए दूसरा शब्द ब्राह्मण ग्रंथों में 'सोम' आता है। सोम क्या है? "अमृतम् वै सोमः" (शतपथ)-अर्थात अमृत ही सोम है। अमृत क्या है ? ज्ञान और तप से उत्पन्न हुआ आनंद। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का तात्पर्य उस श्रद्धा से है जो ज्ञान और तप की ओर, विवेकयुक्त सत्प्रयत्नों की ओर हमारी भावना और क्रियाशीलता को अग्रसर करती है। इस संस्कृति को जब, जहाँ, जितनी मात्रा में अपनाया गया है, वहाँ उतना ही भौतिक समृद्धि और आत्मिक विभूति का अनुभव आस्वादन हो पाया है।


-अखण्ड ज्योति से साभार