विपरीत परिस्थितियों में मानसिक स्थिरता ही तप है!






श्रेणिकपुत्र मेघ ने भगवान बुद्ध से मंत्रदीक्षा ली और उनके साथ ही रहकर तपस्या में लग गए। विरक्त मन को उपासना से असीम शांति मिलती है। कूड़े से जीवन में मणि-मुक्ता की-सी ज्योति झिलमिलाने लगती है, मन-वाणी-चित्त अलौकिक स्फूर्ति से भर जाते हैं। साधक को रस मिलने लगता है। तो मेघ भी अधिकांश समय उसी में लगाते। किंतु भगवान बुद्ध की दृष्टि अत्यंत तीखी थी। वे जानते थे रस सब एक हैं, चाहे वे भौतिक हों या आध्यात्मिक। रस की आशा चिरनवीनता से बँधी है, इसीलिए जब तक नयापन है, तब तक उपासना में रस स्वाभाविक है, किंतु यदि आत्मोत्कर्ष की निष्ठा न रही तो मेघ का मन उचट जाएगा, अतएव उसकी निष्ठा को सुदृढ़ कराने वाले तप की आवश्यकता है। सो वे मेघ को बार-बार उधर धकेलने लगे।
मेघ ने कभी रूखा भोजन नहीं किया था। अब उन्हें रूखा भोजन दिया जाने लगा। कोमल शय्या के स्थान पर भूमिशयन, आकर्षण वेशभूषा के स्थान पर मोटे वल्कल वस्त्र और सुखद सामाजिक संपर्क के स्थान पर राजगृह आश्रम की स्वच्छता, सेवा-व्यवस्था एक-एक कर इन सबमें जितना अधिक मेघ को लगाया जाता, उनका मन उतना ही उत्तेजित होता, महत्त्वाकांक्षाएँ सिर पीटतीं और अहंकार बार-बार आकर खड़ा होकर कहता- ओ रे मूर्ख मेघ! कहाँ गया वह रस? जीवन के सखोपभोग को छोड़कर कहाँ आ फँसा। मन और आत्मा का द्वंद्व निरंतर चलते-चलते एक दिन वह स्थिति आ गई, जब मेघ ने अपनी विरक्ति का वस्त्र उतार फेंका और कहने लगे-'तात! मुझे तो साधना कराइए, तप कराइए जिससे मेरा अंतःकरण पवित्र बने।'
तथागत मुस्कराए और बोले-'तात! यही तो तप है। विपरीत परिस्थितियों में भी मानसिक स्थिरता-यह गुण है, जिसमें आ गया वही सच्चा तपस्वी, वही स्वर्ग विजेता है। उपासना तो उसका एक अंग मात्र है।'  मेघ की आँखें खुल गई और वे एक सच्चे योद्धा की भाँति मन से लड़ने को चल पड़े।

 


साभार-अखण्ड ज्योति