विघ्नेश्वर गणेश जी


भगवान गणेश भी नित्य देवता हैं। उनकी पंचदेवों में गणना है। समय-समय पर उनका प्राकटय होता है। एक बार जगदम्बा पार्वती से उनका प्राकटय इस प्रकार हुआ। भगवती पार्वती कैलाश पर्वत पर अपने अन्तःपुर में विराजमान थीं। सेविकाएं उबटन लगा रही थीं। उन्हें एक लीला सूझी, उन्होंने शरीर के गिरे उबटन को बटोर कर एक बालक की मूर्ति बना डाली। उन चेतनमयी की बनायी मूर्ति में तत्काल चेतना आ गयी। वह बालक मां के चरणों-कमलों में प्रणाम कर बोला-माते! क्या आदेश है? शक्तिस्वरूपा पार्वती आशीर्वाद में शक्ति प्रदान कर बोलीं, बेटा, जब तक मैं स्नान न कर लूं, तू द्वार पर खड़ा रह और किसी को भी अंदर न आने देना। बालक हाथ में डंडा लेकर द्वार पर खड़ा हो गया।
उसी समय भूतभावन शिव वहां आये। वे अपनी पत्नी के पास अन्तःपुर में जाने लगे, किन्तु द्वार पर तैनात बालक ने उन्हें अंदर जाने से रोक दिया। विषपायी शंकर भी कम विनोदी नहीं हैं। उन्होंने पहले तो इन्द्र, वरूण, कुबेर, यम आदि देवताओं को उस बालक को अंतःपुर के द्वार से हटाने का आदेश दिया, किन्तु उस बालक ने डंडे मार-मार कर सबको भगा दिया। वे आहत होकर भाग खड़े हुए। तब स्वयं शिव दो-दो हाथ करने बालक के सामने आये, पर वह बालक साधारण बालक थोड़े ही था, जो उन्हें देखते ही डर जाता। फिर क्या, प्रलयकर्ता शिव की क्रोधाग्नि धधक उठी। उन्होंने एक क्षण मे ही अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर धड़ से अलग कर दिया।
यह सुनकर मां पार्वती के क्रोध का ठिकाना न रहा। वे चंडी रूप में आ गयीं। असमय ही प्रलय की स्थिति देख देवतागणों ने स्तुति कर चंडी का क्रोध शांत किया। वे इस शर्त पर शान्त हुई कि मेरे पुत्र को जीवित कर दिया जाये। शिव ने किसी प्राणी का सिर लाने के लिए गण भेजे। वे एक हाथी के बच्चे का सिर ले आये। शिव ने वह सिर बालक के धड़ से जोड़ दिया। फिर क्या, बालक उठ पड़ा और गजानन कहलाया। एक बार कार्तिकेय के साथ युद्ध करते गजानन का एक दांत टूट गया तब से गणेश जी एकदन्त हैं। गणेश जी का वर्ण और वस्त्र लाल है। उनके माथे पर त्रिपुंड तिलक हैं। वे लम्बोदर और मूषकवाहन हैं। ऋद्धि-सिद्धि उनकी पत्नियां हैं। गणेश बुद्धि के अधिष्ठाता हैं।
एक बार ब्रहमा की सभी में प्रश्न उठा कि कौन प्रथम पूज्य हो? इसका निर्णय करने के लिए निश्चय हुआ कि जो पृथ्वी की परिक्रमा कर पहले आयेगा, वही प्रथम पूज्य होगा। फिर क्या था देवगण अपने-अपने तीव्रगामी वाहनों पर सवार होकर दौड़ पड़े। गणेश चूहे पर बैठे कछुआ चाल से जा रहे थे। देवर्षि नारद के कहने पर उन्होंने अपने माता-पिता शिव-पार्वती की प्रदक्षिणा कर सबसेे पहले ब्रहमा के पास पहुंच गये। वे पृथ्वी की ही क्या, तीनों लोकों की परिक्रमा कर चुके थे। इसलिए ब्रहमाजी ने उन्हें प्रथम पूज्य बनाया। तभी से प्रत्येक कार्य में उनकी पहले पूजा होती है। वे भगवान शिव के गणों के मुख्य अधिपति हैं। अगर गणपति की प्रथम पूजा न हो तो निर्विघ्न कार्य संपन्न होने की आशंका बनी रहती है। वे मंगल मूर्ति गणेश थोड़ी सी सेवा से ही प्रसन्न हो जाते हैं। महाराष्ट्र मेें तो गणेश की पूजा बड़ी धूमधाम से होती है। यदि वे महाभारत के लेखक न बनते तो भगवान व्यास के पंचम वेद से संसार वंचित रह जाता।