अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता !

यदि हम जीवन के किसी भी पड़ाव पर पीछे मुड़कर देखें तो पायेंगे कि कितना कुछ अभिव्यक्त ही नहीं हो पाया। अपने कष्ट, पीड़ा, भावुकता आदि को अभिव्यक्त करने की क्षमता मनुष्य में प्रारंभ से ही पनपती रहती है। अबोध बालक भी किसी न किसी रूप में अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति करने में समर्थ होता है। जैसे बुद्धि की प्रखरता बढ़ती है, मनुष्य सोच समझकर तथा अधिकतर बिना सोचे समझे अपने विचार, अपनी भावनाओं को जब तब अभिव्यक्त करने में लग जाता है। अपने चारों ओर दृश्टि डालें या फिर स्वयं को ही देखें तो यह स्पष्ट होता है कि हम दूसरों के प्रति नकारात्मक अभिव्यक्ति में तो निपुण होते जा रहे हैं, सच कहिए तो शायद औरों की टीका-टिप्पणी में सभी को एक प्रकार की शांति सी प्राप्त होती है। घर के आंगन से लेकर राजनीतिक गलियारों तक सभी बस एक दूसरे को नीचा दिखाने की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में लगे दिखते हैं।
'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' तो एक सबसे नवीन व लोकप्रिय नारा बन पड़ा है। अब इस अभिव्यक्ति से कोई आहत होता है तो होए, क्योंकि यह अधिकार उन्हें देश के संविधान ने दिया है। यह मानना उनकी धारणा के विपरीत है कि सभ्य समाज में कल्याणकारी, रचनात्मक, तर्कसाध्य अभिव्यक्ति अपने व दूसरों के जीवन में कितना आनंद प्रदान कर सकती है। कितनी दूरियां पाट सकती है। अभिव्यक्ति ऐसी हो जिसमें गहराई हो, साधना झलके व परंपरा, स्फुरित हो। न कि अपना रोना सुनाओं और दूसरों का सुनो। शांति का संदेश फैलना भी एक प्रकार की सुंदर अभिव्यक्ति है।
इस संघर्ष में यह भी याद रहे कि अपने प्रियजन जिनसे हमें लगाव है, उनके प्रति अपने प्रेम की अभिव्यक्ति निरंतर करते रहें। उसे केवल सोशल मीडिया तक ही सीमित न रखें। कहीं ऐसा न हो कि बहुत विलंब हो जाए और मन की बातें अभिव्यक्त ही न हों पाएं। यह हमारा प्रयास सर्वदा रहना चाहिए कि ईश्वर ने जिस अभिव्यक्ति की देन मानव को दी है, उसे सोच, समझ कर उपयोग में लाएं। यह प्रवृत्ति समाज व पूरे संसार की बहुत सी समस्याओं का समाधान बन सकती है। तब बात दुर्लभ तो हैं, लेकिन असंभव नहीं। क्यों न इसका स्वयं से ही शुभारंभ किया जाए।